असली आज़ादी वाली आज़ादी devendra kushwaha द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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असली आज़ादी वाली आज़ादी

देश को आज़ाद कराना आसान नही था बहुत त्याग और संघर्ष के बाद इस देश को आज़ादी नसीब हुई। आजादी बेशकीमती थी क्योंकि लाखों लोगों ने इसे पाने के लिए बिना कुछ सोंचे समझें अपनी जान न्योछावर कर दी। आज़ादी के दीवानों का न कोई धर्म था न कोई जाति न कोई ऊंचा न कोई नीचा न कोई दलित और न कोई पिछड़ा, वो सभी सिर्फ हिंदुस्तानी थे। लगभग साढ़े तीन सौ साल की गुलामी के बाद मिली आज़ादी खूबसूरत और सुकून भारी होनी चाहिये। और शायद ऐसा होता भी यदि अपने देश के दो टुकड़े न हुए होते। दो टुकड़े होते ही दोनों तरफ के लोग एक दूसरे को दुश्मन समझने लगे। वो लोग पूरी तरह से भूल चुके थे कि देश की आज़ादी में दोनों तरफ के लोगो का योगदान है। दो देश अलग होने से जैसे युध्द की आदत सी लग गयी और तब से लेके अब तक लगभग हर दशक में दोनों देशों के बीच युध्द हुआ। छोटे छोटे लडाई की गिनती नही की जा सकती।

यह कहानी उसी समय की है जब देश बस आज़ाद ही हुआ था। एक तरफ देश भक्त आचार्य विनोबा भावे और सरदार पटेल अखंड भारत का सपना पूरा करने में लगे थे और बाबा अम्बेडकर दुनिया का सबसे बड़ा और सफल संविधान लिखने की तैयारी कर रहे थे तो एक तरफ उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े और औद्योगिक राजधानी कहे जाने वाले कानपुर शहर से 23 किलोमीटर दूर बिजुरिया गांव में कुछ ऐसा हो रहा था जो शायद किसी ने सोंचा भी ना होगा।

कानपुर उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा शहर हुआ करता था। और देश की आज़ादी में इस शहर का एक बड़ा योगदान था। आखिर झांसी की रानी का जन्म यही हुआ था। आखिर तात्या टोपे और आखरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर इसी शहर से जुड़े हुए थे। देश भक्ति और देश के लिए अपने प्राण त्यागना यहाँ के लोगो के लिए शान की बात हुआ करती थी।

कथा का आरंभ आज़ादी से कुछ समय पहले 1927 से हुआ। बिजुरिया गांव के दो अलग अलग परिवारों में दो बच्चो ने एक ही समय जन्म लिया। एक परिवार था नरेंद्र सिंह चौहान का जोकि एक ऊंची जाति के थे और दूसरा नन्नू सिंह जो कि एक नीची जाति के थे। उस समय हमारे देश में नीची जाति के लोगो की हालत बहुत अच्छी नही हुआ करती थी। ऊंची जाति के लोग नीची जाति के लोगो के साथ न तो उठते बैठतें थे और ना ही उनके घर आना जाना होता था और एक साथ खाने की तो सोंच ही नही सकते थे। पर चौहान साहब और नन्नू की कहानी थोड़ी अलग थी। दोनों के घर एक दिन दिन संतान की प्राप्ति हुई। एक बड़े घर का वारिस और एक छोटे घर का शहंशाह। वैसे तो नन्नू के घर पैसे नही थे पर उन्होने अपने बेटे की परवरिश में कोई कमी नही रखी। चाहे एक रोटी कम खाये पर अपने बच्चे को जरूर पढ़ाये। ऐसी सोंच थी एक गरीब परंतु दिल के अमीर पिता की। नन्नू के एक ही पुत्र था परंतु पुत्र से बड़ी दो पुत्रियां जरूर थी। एक का नाम मनोरमा और दूसरी का सुलोचना। नन्नू अपने पुत्र प्रेम में इतने दीवाने हो चुके थे कि अपनी पुत्रियों पर उनका तनिक भी ध्यान न था।

अपने पुत्र शैलेंद्र के आगे तो वो अपनी पत्नी की भी नही सुनते। कहते अपने पुत्र को वो सब खुशियां दूंगा जो मुझे कभी न मिली। एक पिता का प्रेम अपने पुत्र के लिए ऐसा ही होता है। प्रेम समंदर से भी गहरा और मोह आकाश से भी ऊंचा।

उसी गांव के दूसरे छोर के चौहान साहब की छोटी परंतु शानदार हवेली थी। उसमें चौहान साहब के दोनों बेटों का भी लालन पालन बड़ी ही शानदार तरीके से हो रहा था। आखिर चांदी नही बल्कि सोने का चम्मच मुँह में लेके पैदा हुए थे दोनों। अच्छे कपड़े, अच्छा खाना, अच्छा स्कूल और ऊँचा रौब दोनों ही बच्चो को विरासत में मिला था। सरपट अंग्रेज़ी बोलते हुए बच्चे चौहान साहब का सम्मान बढ़ाते थे।
उस गांव में बरक्कत थी, लोगो के पास धन और धान्य की कोई कमी न थी। पर अभी देश आजाद नही हुआ था।
महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल जैसे नेता देश की आज़ादी के लिए अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। और यही खबरें सुनके और प्रतिदिन अखबार में पढ़ के सभी बच्चे बड़े हो रहे थे।

दोनों ही परिवार के बच्चे बड़े हो रहे थे और उनके माता पिता बूढ़े हो रहे थे। 1945 का समय आया और अब बच्चे 18 वर्ष के हो चुके थे। दोनों ही जवान थे और आज़ादी के लिए दीवनगी उनमे भी थी। मैट्रिक की परीक्षा दोनों ने एक साथ पास की। नन्नू का पुत्र शैलेंद्र और चौहान साहब के छोटे पुत्र शेखर जैसे होनहार बालक पूरे गांव में नहीं थे। परंतु उन दोनों में कोई खास दोस्ती न थी। और हो भी कैसे दोनों की परवरिश बिल्कुल अलग थी और सोंच भी। स्कूल में तो दोनों ने एक दुसरे की तरफ देखा भी नही परन्तु जब बारहवीं करने के लिए कानपुर के एक कॉलेज में प्रवेश लिया तो बात करना और मेल मिलाप शुरू हो ही गया। परदेश में पराये भी अपने जैसे ही लगते है। देश को आज़ादी मिलने के कुछ ही महीने पहले दोनों बालको ने अपनी परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।

1947 में अपना देश आजाद हो गया। पूरे देश मे खुशी की लहर थी और आज़ादी मिलने से इन दोनों को इस बात का मलाल अवश्य था क्योंकि ये दोनों देश की आज़ादी में कोई सहयोग नही कर पाए।

देश सेवा करने का सौभाग्य दोनों बालकों को जल्दी ही मिल गया जब भारतीय सेना ने नौजवानों की नई भर्तियां शुरू की।  शैलेंद्र और शेखर ने भी सेना में भर्ती की इच्छा जताई और अंततः उनदोनों को ही सफलता प्राप्त हुई।

अपने बच्चों को इतनी कम उम्र में सेना में भर्ती होता देख कौन से माता पिता को गर्व नही होगा। देश सेवा का इससे अच्छा मौका मिलना मुश्किल है। परंतु अपने बच्चों को अपने से दूर कोई भी नही करना चाहता। एक तरफ जहां दोनों घरों में सरकारी नौकरी मिलने की ख़ुशी और देश सेवा का गर्व था वही दूसरी तरफ अपने बच्चों के दूर होने का ग़म भी था।

अगले महीने दोनों बालक अपना गांव और परिवार को छोड़कर ट्रेनिंग के लिए दिल्ली चले गए। उस समय न फोन हुआ करते थे और न कोई और तरीका। सिर्फ पत्र से ही व्यवहार होता था। दिल्ली में सफल ट्रेनिंग के बाद उन दोनों को भारत पाकिस्तान बॉर्डर पर तैनाती कर दी गयी।

पत्र व्यवहार ये याद आया कम से कम अपना परिचय तो दे ही दू आखिर मुझे ही तो इस कहानी का कथावाचक हूं और जो कुछ भी हुआ वो शायद मेरी वजह से ही हुआ।

मेरा नाम गोपाल दास है और मैं बिजुरिया गांव का एक मात्र डाकिया हूं। मेरे परिवार का वैसे तो कहानी में कुछ लेना देना नही है परंतु फिर भी बता दूं की मैं कानपुर देहात का रहने वाला सरकारी नौकर हूं। रोजाना मैं कानपुर से बिजुरिया गांव सारे पत्र लेके जाता हूं और शाम को लौट के घर आ जाता हूं। गांव वाले मुझे भगवान मानते है क्योंकि मैं कई बार गांव वालों के लिए शहर से जरूरी सामान लाके देता हूं। सालों में एक बार या दो बार ही सही पर उनके पत्र लेकर देता हूं। सबसे बड़ी बात ये है कि वो समझते है कि मैं बहुत पढ़ा लिखा हूं क्योंकि मैं उनको पत्र पढ़ के सुनाता हूं। इतना सम्मान मुझे अपने घर पर भी नही मिलता जितना मुझें इस गांव में मिलता जाता है।

प्रचलित होने के बाद भी मैं वहाँ के सभी लोगो को नही जानता था, क्योंकि बहुत ही कम लोग उस समय पत्र व्यवहार करते थे और ज्यादातर कम पढ़े लिखे लोग सरकारी कर्मचारियों से दूर ही भागते थे।

जब से गांव के दो लड़कों की सेना में भर्ती हुई कुछ पत्र व्यवहार शुरू हो चुका था। प्रत्येक माह एक दो पत्र घर वाले अपने लड़को को या लड़के अपने घर वालो को लिख ही दिया करते थे।

अभी शैलेंद्र और शेखर को सेना में भर्ती हुए छह माह ही हुए थे कि भारत और पाकिस्तान के संबंधों में खटास आने लगी थी। अभी दोनों देश ठीक तरह से लोकतांत्रिक हुए भी नही थे नेहरू अभी अभी प्रधानमंत्री बने ही थे कि अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने युद्ध की पहल कर दी। दोनों तरफ से बहूत जवान शाहिद हुए। शैलेंद्र और शेखर जो अब तक अच्छे दोस्त हो चुके थे उन्होंने भी इस युद्ध मे भाग लिया और अपने गांव को गौरवान्वित किया।

पूरे युद्ध के समय देश की हालत बहुत अच्छी नही थी। लोग सारे दिन रेडियो पर खबरे सुनने में लगे रहते। आखिर कुछ लोगो के दिल के तार अभी भी पाकिस्तान से जुड़े जो थे। अभी दोनों को अलग हुए समय ही कितना हुआ था।
बिजुरिया गांव की स्थिति भी कुछ ऐसे ही थी। युद्ध के समय पत्र व्यवहार और रेडियो का प्रयोग बहुत बढ़ चुका था। दोनों ही परिवार युद्ध के दौरान बहुत परेशान रहे। उनकी जान अटकी हुई थी पर इसी बहाने दोनों परिवारों में थोड़ी सी बात चीत शुरू हो चुकी थी। कभी कभी लोग एक दूसरे का हाल चाल ले लिया करते थे।। 1 जनवरी 1948 को जब रेडियो पर खबर आई कि भारत यह युद्ध जीत चुका है और युद्ध समाप्त हो चुका है, पूरे गाँव मे खुशी की लहर दौड़ गयी। अब दोनों ही परिवार अपने बच्चों के वापिस आने का इंतजार करने लगे। आखिर लंबा समय हो गया था दोनों ही परिवारों को अपने बच्चों को देखे हुए।

To be continued....
असली आज़ादी वाली आज़ादी(भाग-2)

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